तिरछी नज़र: दिवाली मनाई किस दिन, इकतीस को या एक को?
गुप्ता जी सुबह सुबह मॉर्निंग वाक के समय मिल गए। बोले 'दिवाली कब मना रहे हो'?
मैंने कहा, 'कभी भी मना लेंगे। अपना क्या है। आप कहेंगे तो इकतीस को मना लेंगे और आप कहेंगे तो एक को मना लेंगे। आप कब मना रहे हैं'?
'मित्र, कुछ समझ नहीं आ रहा है। इकतीस को मनाएं या एक को'।
'हम तो इकतीस को ही मना रहे हैं। सरकारी छुट्टी भी इकतीस को ही है। वैसे बहुत सारे लोग एक को भी मना रहे हैं', मैंने जवाब दिया।
'हाँ, यही तो समझ नहीं आ रहा है। वैसे मेरी वाइफ की बहन एक को मना रही है। उनकी फोन पर बात हुई थी। तो वाइफ कह रही है कि हम भी एक को ही मनाएंगे'।
'तो एक को मना लो'।
'लेकिन अम्मा ने गांव फोन कर के पूछा था तो चाचा जी बता रहे थे कि गांव में सब इकतीस को ही मना रहे हैं। इसलिए अम्मा कह रही हैं कि इकतीस को ही मना लें'।
'तो इकतीस को ही मना लो'।
'यही तो दुविधा है मित्र। एक को मनाएं या इकतीस को मनाएं। एक को मनाएं तो अम्मा नाराज़ और इकतीस को मनाएं तो वाइफ', गुप्ता जी ने अपनी मुश्किल बताई।
मैं गुप्ता जी को दुविधा में छोड़ कर चला आया। अब हमारे देश में हर त्योहार दो दो दिन पड़ता है। दो दो बार मनाया जाता है। आधे लोग एक दिन मानते हैं और शेष आधे अगले दिन। कभी इसका उल्टा भी होता है। आधे लोग दूसरे दिन मानते हैं और शेष आधे लोग एक दिन पहले। सारे लोग त्योहार एक दिन शायद ही कभी मानते हैं। ऐसा पिछले दस साल में ही अधिक देखा जा रहा है।
ऐसा लगता है कि त्योहार मानाने में सबकी एकता तो सरकार जी के आने के बाद समाप्त ही हो गई है। बात तो देश की एकता की होती है पर सब लोग एक साथ, मिलजुल कर, एक ही दिन त्योहार मनाएं, ऐसा सरकार जी के रहते नहीं होता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है। पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी और दो अक्टूबर तो पूरा देश एक ही दिन मनाता है। हालांकि पंडितों के बस में होता तो ये त्योहार भी कभी किसी तारीख को मनाये जाते और कभी किसी तारीख को। दो दिन लगातार भी मनाये जाते। मतलब पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी और दो अक्टूबर भी दो दो दिन मनाए जाते। एक दिन आगे, एक दिन पीछे।
अगर ऐसा होता तो सरकार जी को भी उतनी ही दुविधा हो जाती जितनी आज गुप्ता जी को है। सरकार जी दुविधा में पड़ जाते कि पहले वाले पंद्रह अगस्त को झंडा फहराएं और भाषण दें या फिर एक दिन बाद वाले पंद्रह अगस्त को। वैसे सरकार जी दोनों दिन भी झंडा फहरा सकते हैं और भाषण दे सकते हैं। भाषण देने और उद्घाटन करने में सरकार जी की कोई सानी नहीं है। कितनी भी बार करवा लो।
किसी भी त्योहार का दो दो दिन मनाना सरकार जी को बहुत अधिक सूट करता है। अब देखो दिवाली दो दिन मनाई गई तो सरकार जी को सूट की। पंद्रह दिन से लोग एक ही बात डिसकस कर रहे थे कि दिवाली कब की है, एक की या इकतीस की? जब पता चला कि दोनों दिन है तो डिस्कशन इस बात पर शिफ्ट हो गया कि आप दिवाली किस दिन मना रहे हैं? किसी और बात पर कोई बात नहीं। किसी और बात पर कोई ध्यान नहीं।
कोई बात नहीं इस बात पर कि महंगाई कितनी बढ़ गई है। न ही इस बात पर कि जो अस्सी करोड़ लोग प्रति माह पांच किलो गेहूं या चावल के लिए सरकार जी के मोहताज हैं, उनके लिए दिवाली का क्या मतलब है? न ही इस बात पर कि देश में कितने करोड़ परिवार ऐसे हैं जिनके पास एक दिया जलाने के लिए भी तेल नहीं है। बस बात है, बहस है, चर्चा है तो इस बात की है कि इस बार दिवाली कौन सी तारीख को है? कौन सी तारीख को मना रहे हो?
अरे छोड़ो बेकार की बातें। देश अमीरी की ओर बढ़ रहा है और आप गरीबों वाली बात ले बैठे। आप तो यह बताओ, दिवाली इस बार कैसी मनी। धनतेरस को इस बार क्या खरीदा? कार खरीदी या फिर खरीदा सोने का हार? या फिर कोई बरतन ही खरीदा? नेग के लिए दस पंद्रह रुपये की एक चम्मच ही खरीद ली? दिवाली पर कितनी लड़ियां लगाईं? कितने दिए जलाये? कितने रुपये के पटाखे फूंके? किस किस को गिफ्ट दी और कहाँ कहाँ से गिफ्ट आईं? दिवाली ठीक ठाक तो मनी ना?
वह सब तो ठीक है, पर यह तो बताओ जरा, दिवाली मनाई किस दिन, इकतीस को या एक को?
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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