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बिहार: ‘जीविका दीदियों’ की गुहार, नहीं सुन रहे नीतीश कुमार 

बिहार सरकार की ग्रामीण महिला सशक्तिकरण से जुड़ी सभी योजनाओं को घर-घर तक पहुंचाने वाली ‘जीविका दीदियां’ तीन महीने से अपनी दस सूत्री मांगों को लेकर आंदोलन कर रही हैं। लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।
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बिहार के चुनावी नतीजों को लेकर होने वाली राजनीतिक चर्चाओं में अक्सर ये बात उभर कर आती रही है कि नीतीश कुमार जी की “चमत्कारी चुनावी सफलता” के पीछे का रहस्य क्या है। हालांकि ये कोई छिपा हुआ मामला नहीं है। इसके पीछे प्रदेश भर की वे ग्रामीण महिला मतदाता हैं जिनकी बदौलत ही वे विपक्षियों से बाजी मार ले जाते हैं। मगर बहुत कम लोग ही ये जान सके हैं कि लाखों लाख ग्रामीण महिला मतदाता जो भारी संख्या में नीतीश कुमार जी को जो अपना बहुमूल्य वोट देती रहीं हैं तो इसके पीछे गांव गांव में सक्रिय उन हज़ारों ‘जीविका दीदियों’ की ही अहम भूमिका रही है जो गांवों की हर महिला मतदाता से सीधे तौर से जुड़ी रहती हैं। उनकी रोजमर्रे की समस्याओं-संकटों को सुलझाने से लेकर सरकार से मिलने वाली विकास योजनाओं की लाभार्थी महिलाओं को अपना सहयोग देती हैं।  

‘जीविका दीदियों’ की इस अहम् भूमिका और उनकी “साइलेंट सक्रियता” से ही गांव-गांव में महिलाओं के “साइलेंट वोट” नीतीश कुमार और उनके पार्टी प्रत्याशियों को हर बार हासिल होते रहे हैं। यही वो सबसे बड़ा कारण है जो बिहार में होनेवाले हर चुनाव में नीतीश कुमार को विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में ‘चमत्कारी सफलता” दिलाती है।  

विडंबना है कि आज वे हजारों ‘जीविका दीदियां’ विगत तीन महीनों से अपनी दस सूत्री मांगों को लेकर महिला-विकास का चैम्पियन कहलाने वाले नीतीश कुमार जी के सामने गुहार लगा रही हैं। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। फलतः विगत सितम्बर माह से ही वे आज तक अपनी मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। 

26 नवम्बर को राजधानी पटना में बिहार विधानसभा के चालू शीतकालीन-सत्र के दौरान अपनी मांगों को लेकर हज़ारों की संख्या में ‘जीविका दीदियों’ ने ‘महाजुटान’ प्रदर्शन भी किया। जिसमें विपक्ष और भाकपा माले के कई विधायकों ने शामिल होकर उन्हें समर्थन दिया। 

इतने लंबे समय से आंदोलन चल रहा है लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर सम्बंधित मंत्रालय-विभाग तक ने कोई संज्ञान नहीं लिया है। उलटे उनकी अनिश्चितकाली हड़ताल में शामिल जीविका-दीदियों व पुरुष सहकर्मियों पर प्रशासनिक दमन तेज़ कर दिया गया है। सबों को उनके काम से निकाल देने व जेल भेज देने की लगातार धमकियां भी दी जा रही हैं। बावजूद इसके जीविका-दीदियां अपनी मांगों को लेकर लगातार डटी हुईं हैं।

“बैठक करवाव ही जमा करवाव ही-निकासी करवाव ही गे बहिना

कईसन हथिन नीतिस सरकारवा निरदईया, न सुन हथिन बतिया गे बहिना !”

खुद से बनाए आंदोलन के ऐसे कई कई गीतों को गाकर बिहार प्रदेश भर की ‘जीविका दीदियों’ (जीविका कैडर) का ऐलानिया कहना है कि जबतक उनकी मांगें नहीं पूरी होंगी, उनका आंदोलन जारी रहेगा।  

दुर्भाग्य है कि आये दिन महिला सशक्तिकरण का दम भरनेवाले माननीय नीतीश कुमार से लेकर उनके मंत्री और आला अधिकारीगणों में से किसी ने भी अब तक कोई सुध नहीं ली है। क्षुब्ध होकर जीविका-दीदियों ने जगह-जगह ‘जीविका केन्द्रों’ पर ताला लगाकर सारा काम-काज ठप्प कर रखा है। जिससे गांव-गांव में जारी बिहार सरकार की ग्रामीण महिला विकास योजनाओं से जुड़ी सारी प्रक्रियाएं भी बाधित हो गयीं हैं। 

नीतीश कुमार सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये से आंदोलन और भी तीखा होता जा रहा है। यही कारण है कि हड़ताली जीविका-दीदियों को प्रशासन व विभागीय अफसर-कर्मचारियों की ओर से “सेवा से बर्खास्त किये जाने और जेल भेजने” जैसी धमकियों की परवाह किये बिना ये अपनी मांगों के लिए डटी हुईं हैं।

जीविका-दीदियों के अनुसार बिहार सरकार के ग्रामीण महिला सशक्तिकरण से जुड़ी सभी योजनाओं को घर-घर तक पहुंचाने में दिन-रात की कड़ी मशक्कत करने के बदले सरकार प्रतिमाह मात्र 1200 रुपये का मानदेय ही देती है। जो सरकार द्वारा निर्धारित “न्यूनतम मजदूरी” से भी काफी कम है। इनके लिए न कोई सरकारी अवकाश है और न ही किसी तरह की सुविधा। उस पर से इन्हें हर काम को अपने निजी खर्चे पर इंटरनेट- मोबाइल से करके, विभागीय अफसरों व स्थानीय केन्द्रों को नियमित रूप से देने की बाध्यता है। बड़े वेतनमान पानेवाले सरकार के सभी अफसर-कर्मचारियों के जिम्मे के सारे ज़मीनी ग्रामीण स्तर के कार्यों को नियत समय में लागू करने की जवाबदेही इन्हीं ‘जीविका दीदियो’ के जिम्मे है। इन्हीं के कामों के प्रोग्रेस रिपोर्ट से सरकारी अमले में बैठे लोग अपनी “वर्क-रिपोर्ट” से वाहवाही पाते हैं।

सनद रहे कि ये सभी ‘जीविका-दीदी’ खुद गरीब घरों से आई हैं और अपने घर-परिवार और बाल-बच्चों के भरण-पोषण के लिए ही इतने कठिन कार्यों को पूरी लगन से कर रहीं हैं। लेकिन अब इनका साफ़ कहना है कि इस भयवाह महंगाई-गरीबी में अब इतने कम मानदेय-राशि पर खुद इनके घर-परिवार का गुजारा नहीं हो पा रहा है।

अपने भावुक संबोधनों में हर जगह ये बता रहीं हैं कि- ग्रामीण क्षेत्रों में महिला विकास से जुड़ा जो भी काम होता है सब हम लोगों पर थोप दिया जाता है। हर काम मोबाइल से करना है तो रोज़ रोज़ मोबाइल रिचार्ज का खर्चा हम गरीब कहाँ से उठाएंगे। नीतीश कुमार जी की सरकार जो हमसे कटोरा लेकर भीख मंगवा रही है, ब हम लोग भीख मांगने वाले नहीं हैं। 

बिहार प्रदेश जीविका कैडर संघ के नेतृत्व में अपनी दस सूत्री मांगों को लेकर ‘जीविका दीदियों’ का जो आंदोलन चल रहा है उसमें- मानदेय 20,000 रुपये प्रतिमाह दिए जाने, सभी जीविका कार्यकर्त्ताओं को पहचान-पत्र देने, कंटीब्यूट्री-सिस्टम बंद करने व सभी जीविका-कैडरों को राज्य सरकारी कर्मचारी का दर्जा देकर स्थायी किये जाने समेत कई अन्य मांगें हैं। इसके अलावा फिलहाल की सबसे बड़ी मांग है कि- सितम्बर’24 में जो “काला-आदेश” जारी किया गया है कि अब से सरकार से मिलनेवाली सहायता-राशि नहीं दी जाएगी। उन्हें अपना सारा गुजारा-खर्चा गांवों की “समूह-महिलाओं” से ही वसूलकर पूरा करना होगा। इसे अविलम्ब रद्द किया जाए।  

जीविका-दीदियों के आंदोलन में शामिल  ‘ऑल इंडिया स्कीम वर्कर्स फेडरेशन’ की राष्ट्रीय महासचिवऔर बिहार विधान परिषद् की सदस्य शशि यादव ने बिहार विधान-परिषद में ‘जीविका दीदियों’ की यातनामय स्थिति को बताते हुए जल्द से जल्द उनकी मांगों को पूरा करने पर जोर दिया है। 

मीडिया के माध्यम से ये आरोप भी लगाया कि एक ओर, मोदी सरकार सभी स्कीम-वर्करों से बंधुवा-मजदूर का काम करवा रही है तो उसी रास्ते पर चलकर नीतीश कुमार की सरकार जीविका-दीदियों के साथ “सामन्ती सोच” अपना रही है। जीविका-दीदियों के साथ नाइंसाफी करके और बिहार में महिलाओं को सशक्त बनाने का श्रेय लेनेवाले नीतीश कुमार और उनके मंत्री-अफसर इस सच को नहीं झुठला सकते हैं कि- ‘जीविका-आंदोलन’ की धुरी कम्युनिटी मोबिलाइजर (सीएम) यही जीविका-दीदी हैं। जिन्होंने राज्य की करोड़ों ग्रामीण महिलाओं को ‘सेल्फ हेल्प ग्रुप’ से जोड़ने का अकल्पनीय कार्य किया है। आज इसी ‘धुरी’ को जीवन यापन लायक मासिक मानदेय देने से इंकार करके महिला विरोधी होने का खुला प्रमाण दे रही है।

सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि 2007 से ‘राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन’ के तहत बिहार में शुरू किये गये ‘जीविका अभियान’ के तहत आज दस लाख से भी अधिक ‘स्वयं सहायता समूह’ बनाए जा चुके हैं। जिनमें एक करोड़ इक्कतीस लाख से भी अधिक ग्रामीण महिलाओं को सीधे रूप से जोड़ा जा चुका है। इस गुरुत्तर काम को सफल बनानेवाली एकमात्र ‘जीविका दीदियां’ (जीविका कार्यकर्त्ता) हैं। जो चुनावों में भी घर घर से महिलाओं को निकालकर मतदान-केंद्र तक पहुंचाती हैं। जहां कई बार पुलिसवालों के दुर्व्यवहार भी झेलना पड़ता है क्योंकि इनके पास किसी भी तरह का कोई पहचान-पत्र नहीं होता।

हैरानी की बात है कि ‘जीविका दीदियों’ के कार्यों की तारीफ़ करते हुए खुद नीतीश कुमार से लेकर उनके ग्रामीण विकास मंत्री तक सार्वजनिक रूप से ये कहते रहे हैं कि- “जीविका के बारे में जितनी बातें मैं कहूंगा, आप लोगों को विश्वास नहीं होगा। ‘जीविका’ आज बिहार को बदल रहीं हैं।

ऐसे में ये सवाल तो बनता ही है कि आखिर क्यों उन्हीं ‘जीविका-दीदियों’ की मांगों पर माननीय मुख्यमंत्री समेत उनके मंत्री-अफसर चुप्पी साधे हुए हैं? करोड़ों ग्रामीण महिलाओं की ज़िन्दगी बेहतर बनाने में ज़मीनी सक्रिय ‘जीविका दीदी’ की ज़िन्दगी कब तक रहेगी बदतर?

बिहार विधानसभा का चुनाव अगले वर्ष 2025 में ही होना है, नीतीश कुमार ने घोषणा की है कि- ज़ल्द ही वे “महिला संवाद यात्रा” करेंगे, आंदोलनकारी जीविका-दीदियों ने भी ये खुली चेतावनी दे दी है कि वे इस यात्रा-कार्यक्रम का हर जगह सड़कों पर उतरकर विरोध करेंगी। ऐलानिया यह भी कह रहीं हैं कि यदि उनकी मांगों को लेकर नीतीश कुमार और उनकी सरकार ने जल्द से जल्द सकारात्मक क़दम नहीं उठाया तो इसका खामीयाज़ा उन्हें  सीधे 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ जाएगा।

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